वो दिन गए…
वो दिन गए…दरअसल मेरे हॉस्टल में हर साल एक खास कार्यक्रम होता है ‘उदीषा’…जब मैं हॉस्टल में था तो उन दिनों आशु भाषण प्रतियोगिता का विषय यही था…कई दिनों से ये शीर्षक की तरह मेरे दिमाग में कुलबुला रहा था। मैं अक्सर खाली वक्त में बीते दिनों की यादों की जुगाली करने लग जाता हूं।( ये यादों की जुगाली करने वाली बात चुराई हुई है। अज्ञेय के उपन्यास- अपने-अपने अजनबी में मुख्य रुप से दो पात्र हैं एक युवती और एक वृद्धा…उपन्यास में एक जगह लाइन है – बूढ़ों को चिंता किस बात की, एक ही जगह बैठे-बैठे पगुराते रहते हैं! अतीत की स्मृतियां कुरेद कर जुगाली करते हैं और फिर निगल लेते हैं। उपन्यास आज से 5 साल पहले पढ़ा था, उस वक्त ये लाइनें पढ़ते वक्त बहुत हंसी आई थी, आस-पास के कई सारे बुड्ढों का चेहरा सामने छा गया…सबपे ये बात सही साबित होती थी, लेकिन बाद में महसूस हुआ, इसका ताल्लुक बुढ़ापे से ही नहीं जवानी से भी है, अक्सर अपने मित्रों को nostalgic होते देखा है…अजीब-से सुखद रस की अनुभूति होती है..nostalgis होने में…) बहुत बचपन से ही आत्मकथा और डायरी लिखने की भी तमन्ना रही है। कलम से तो कितनी ही डायरियां भर दीं, लेकिन अब कलम से काम नहीं होता। की-बोर्ड का जमाना है। इसलिए अपने nostalgia को ब्लॉग की शक्ल दे रहा हूं। पहले से ही तीन ब्लॉग हैं। एक मन , दूसरा सपने और तीसरा Off the Record. पहला मन तो बिल्कुल मन की तरह है, जो मन में आता है लिखता हूं, दूसरा सपनों का ब्लॉग है, वो सपनों की दुनिया है और तीसरा तो पूरी तरह community blog है। इस ब्लॉग में मैं वो सब कुछ लिखूंगा जो मैंने जिया है, जो मैंने अब तक की जिंदगी में महसूस किया है। अपनी बीती जिंदगी की तस्वीर एक चित्रकार की तरह बनाऊंगा और एक आलोचक की तरह देखूंगा। इस क्रम में वो तमाम पात्र सामने आएंगे जिन्होंने दुनियावी रंगमंच पर मेरा चरित्र कई बार बदला, कई बार मेरे संवाद बदल दिए, इन्होंने ही मेरे पात्र की भूमिका बदल दी और साथ ही साथ बदल दिया भविष्य भी ! रंगमंच अभी भी है, पर्दा गिरा नहीं, मैं भी अपना किरदार निभा रहा हूं और वो पात्र भी, लेकिन किसी मुसाफिर की तरह वो टाटा-बाय-बाय कहकर पीछे के स्टेशनों पर उतर गए हैं…कई सारे बड़े प्लेटफार्म भी पीछे छूट गए हैं। फिलहाल या तो ट्रेन की बोगी मैं अकेला ही हूं या बत्ती गुल हो गई है और अंधेरे में मैं किसी की मौजदूगी का आभास नहीं कर पा रहा।…और ट्रेन अपनी फुल स्पीड से दौड़े जा रही है, दौड़े जा रही है, जेब टटोलता हूं तो टिकट नहीं मिलता कि देख सकूं कि मुझे किस स्टेशन पर उतरना है, शायद मैं विदाउट टिकट ही चढ़ गया था इस ट्रेन में, देखता हूं ये ट्रेन कहां ले जाती है, पता नहीं कितना ईंधन बचा है अभी !!